Saturday, 2 October 2010

तन्हा लम्हें

१३ अगस्त २०१० को मेरा एक्सिडेंट हुआ और मेरे दाए घुटने के नीछे फेक्चर हुआ, जिसके कारण २ महीनो तक मुझे बिस्तर पे रहेना पड़ा.  उस समय मेरे मन पता नहीं क्यों कुछ आछे विचार ही नहीं आते थे, पर जब पिछले एक हफ्ते से वाकर के सहारे चलने लगा हूँ और "गूगल चाट" पर ऑफिस के मित्रो के साथ बाते करने लगा हूँ, अचानक से कुछ पंक्तिया बन जाती है जो यहाँ लिख रहा हूँ.

दुनिया नहीं रूकती किसी एक जिन्दगी के लिए,  
वह तो चलती रहेती है नए कारवाँ लिए
हां, कभी कभी कुछ बिछड़ जाते है लोग,
पर कँही कँही मिल भी जाते है लोग...


हम तो तन्हाईयो में भी शोर सुन लेते है,
बीते लम्हों को हसके याद कर लेते है,
अगर बिखर भी गए सुर्ख आखोँ से दरिया,
बनाकर माला मोतियों की पहेन लेते है.....


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